मंगलवार, 9 नवंबर 2010

एक बात खयाल रखना कि ....

स्वार्थ शब्द का अर्थ समझते हो? शब्द बड़ा प्यारा है, लेकिन गलत हाथों में पड़ गया है। स्वार्थ का अर्थ होता है--आत्मार्थ। अपना सुख, स्व का अर्थ। तो मैं तो स्वार्थ शब्द में कोई बुराई नहीं देखता। मैं तो बिलकुल पक्ष में हूं। मैं तो कहता हूं, धर्म का अर्थ ही स्वार्थ है। क्योंकि धर्म का अर्थ स्वभाव है।
और एक बात खयाल रखना कि जिसने स्वार्थ साध लिया, उससे परार्थ सधता है। जिससे स्वार्थ ही न सधा, उससे परार्थ कैसे सधेगा! जो अपना न हुआ, वह किसी और का कैसे होगा! जो अपने को सुख न दे सका, वह किसको सुख दे सकेगा! इसके पहले कि तुम दूसरों को प्रेम करो, मैं तुम्हें कहता हूं, अपने को प्रेम करो। इसके पहले कि तुम दूसरों के जीवन में सुख की कोई हवा ला सको, कम से कम अपने जीवन में तो हवा ले आओ। इसके पहले कि दूसरे के अंधेरे जीवन में प्रकाश की किरण उतार सको, कम से कम अपने अंधेरे में तो प्रकाश को निमंत्रित करो। इसको स्वार्थ कहते हो! चलो स्वार्थ ही सही, शब्द से क्या फर्क पड़ता है! लेकिन यह स्वार्थ बिलकुल जरूरी है। यह दुनिया ज्यादा सुखी हो जाए, अगर लोग ठीक अर्थों में स्वार्थी हो जाएं।
और जिस आदमी ने अपना सुख नहीं जाना, वह जब दूसरे को सुख देने की कोशिश में लग जाता है तो बड़े खतरे होते हैं। उसे पहले तो पता नहीं कि सुख क्या है? वह जबर्दस्ती दूसरे पर सुख थोपने लगता है, जिस सुख का उसे भी अनुभव नहीं हुआ। तो करेगा क्या? वही करेगा जो उसके जीवन में हुआ है।
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रविवार, 7 नवंबर 2010

स्वार्थ का अर्थ


स्वार्थ शब्द का अर्थ समझते हो? शब्द बड़ा प्यारा है, लेकिन गलत हाथों में पड़ गया है। स्वार्थ का अर्थ होता है--आत्मार्थ। अपना सुख, स्व का अर्थ। तो मैं तो स्वार्थ शब्द में कोई बुराई नहीं देखता। मैं तो बिलकुल पक्ष में हूं। मैं तो कहता हूं, धर्म का अर्थ ही स्वार्थ है। क्योंकि धर्म का अर्थ स्वभाव है।

और एक बात खयाल रखना कि जिसने स्वार्थ साध लिया, उससे परार्थ सधता है। जिससे स्वार्थ ही न सधा, उससे परार्थ कैसे सधेगा! जो अपना न हुआ, वह किसी और का कैसे होगा! जो अपने को सुख न दे सका, वह किसको सुख दे सकेगा! इसके पहले कि तुम दूसरों को प्रेम करो, मैं तुम्हें कहता हूं, अपने को प्रेम करो। इसके पहले कि तुम दूसरों के जीवन में सुख की कोई हवा ला सको, कम से कम अपने जीवन में तो हवा ले आओ। इसके पहले कि दूसरे के अंधेरे जीवन में प्रकाश की किरण उतार सको, कम से कम अपने अंधेरे में तो प्रकाश को निमंत्रित करो। इसको स्वार्थ कहते हो! चलो स्वार्थ ही सही, शब्द से क्या फर्क पड़ता है! लेकिन यह स्वार्थ बिलकुल जरूरी है। यह दुनिया ज्यादा सुखी हो जाए, अगर लोग ठीक अर्थों में स्वार्थी हो जाएं।

और जिस आदमी ने अपना सुख नहीं जाना, वह जब दूसरे को सुख देने की कोशिश में लग जाता है तो बड़े खतरे होते हैं। उसे पहले तो पता नहीं कि सुख क्या है? वह जबर्दस्ती दूसरे पर सुख थोपने लगता है, जिस सुख का उसे भी अनुभव नहीं हुआ। तो करेगा क्या? वही करेगा जो उसके जीवन में हुआ है।

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समथिंग मोर - जोड़ से कही ज्यादा


इसे थोड़ा समझना पड़ेगा। और इसे हम न समझ पाएं, तो ईशावास्य के पहले और अंतिम सूत्र को भी नहीं समझ पाएंगे। एक चित्रकार एक चित्र बनाता है। अगर हम हिसाब लगाने बैठें, तो रंगों की कितनी कीमत होती है? कुछ ज्यादा नहीं। कैनवस की कितनी कीमत होती है? कुछ ज्यादा नहीं। लेकिन कोई भी श्रेष्ठ कृति, कोई भी श्रेष्ठ चित्र, रंग और कैनवस का जोड़ नहीं है, जोड़ से कुछ ज्यादा है-समथिंग मोर।

एक कवि एक गीत लिखता है। उसके गीत में जो भी शब्द होते हैं, वे सभी शब्द सामान्य होते हैं। उन शब्दों को हम रोज बोलते हैं। शायद ही उस कविता में एकाध ऐसा शब्द मिल जाए जो हम

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दो और दो तीन या दो और दो पांच भी हो जाते हैं


पी.डी.आस्पेंस्की ने एक किताब लिखी है। किताब का नाम है, टर्शियम आर्गानम। किताब के शुरू में उसने एक छोटा सा वक्तव्य दिया है। पी.डी.आस्पेंस्की रूस का एक बहुत बड़ा गणितज्ञ था। बाद में, पश्चिम के एक बहुत अदभुत फकीर गुरजिएफ के साथ वह एक रहस्यवादी संत हो गया। लेकिन उसकी समझ गणित की है-गहरे गणित की। उसने अपनी इस अदभुत किताब के पहले ही एक वक्तव्य दिया है, जिसमें उसने कहा है कि दुनिया में केवल तीन अदभुत किताबें हैं; एक किताब है अरिस्टोटल की-पश्चिम में जो तर्क-शास्त्र का पिता है, उसकी-उस किताब का नाम है: आर्गानम। आर्गानम का अर्थ होता है, ज्ञान का सिद्धांत। फिर आस्पेंस्की ने कहा है कि दूसरी महत्वपूर्ण किताब है रोजर बैकन की, उस

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सारी क्रांतियां हुई, शिक्षा में क्रांति नहीं हुई


दुनिया में अब तक धार्मिक क्रांतियां हुई हैं। एक धर्म के लोग दूसरे धर्म के लोग हो गए। कभी समझाने-बुझाने से हुए, कभी तलवार छाती पर रखने से हो गए लेकिन कोई फर्क नहीं पड़ा। हिंदू मुसलमान हो जाए तो वैसे का वैसा आदमी रहता है, मुसलमान ईसाई हो जाए तो वैसा का वैसा आदमी रहता है, कोई फर्क नहीं पड़ा धार्मिक क्रांतियों से। राजनैतिक क्रांतियां हुई हैं। एक सत्ताधारी बदल गया, दूसरा बैठ गया। कोई जरा दूर की जमीन पर रहता है, वह बदल गया, तो जो पास की जमीन पर रहता है, वह बैठ गया। किसी की चमड़ी गोरी थी वह हट गया तो किसी की चमड़ी काली थी वह बैठ गया, लेकिन भीतर का सत्ताधारी वही का वही है। आर्थिक क्रांतियां हो गई हैं दुनिया में। मजदूर बैठ गए, पूंजीपति हट गए। लेकिन बैठने से मजदूर पूंजीपति हो गया। पूंजीवाद चला गया तो उसकी जगह मैनेजर्स आ गए। वे उतने ही दुष्ट, उतने ही खतरनाक! कोई फर्क नहीं पड़ा। वर्ग बने रहे। पहले वर्ग था, जिसके पास धन है-वह, और जिसके पास धन नहीं है-वह। अब वर्ग हो गया-जिसमें धन वितरित किया जाता है-वह और जो धन वितरित करता है-वह। जिसके पास ताकत है, स्टेट में जो है वह

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सभी प्रेम चाहते हैँ फिर भी प्रेम का अकाल क्योँ


मैं आपको एक सूत्र की बात कहूं: जिस मनुष्य के पास प्रेम है उसकी प्रेम की मांग मिट जाती है। और यह भी मैं आपको कहूं: जिसकी प्रेम की मांग मिट जाती है वही केवल प्रेम को दे सकता है। जो खुद मांग रहा है वह दे नहीं सकता है।

इस जगत में केवल वे लोग प्रेम दे सकते हैं जिन्हें आपके प्रेम की कोई अपेक्षा नहीं है—केवल वे ही लोग! महावीर और बुद्ध इस जगत को प्रेम देते हैं। जिनको हम समझ ही नहीं पाते। हम सोचते हैं, वे तो प्रेम से मुक्त हो गए हैं। वे ही केवल प्रेम दे रहे हैं। आप प्रेम से बिलकुल मुक्त हैं। क्योंकि उनकी मांग बिलकुल नहीं है। आपसे कुछ भी नहीं मांग रहे हैं, सिर्फ दे रहे हैं।

प्रेम का अर्थ है: जहां मांग नहीं है और केवल देना है। और जहां मांग है वहां प्रेम नहीं है, वहां सौदा है। जहां मांग है वहां प्रेम बिलकुल नहीं है, वहां लेन-देन है। और अगर लेन-देन जरा ही गलत हो जाए तो जिसे हम प्रेम समझते थे वह घृणा में परिणत हो जाएगा। लेन-देन गड़बड़ हो जाए तो मामला टूट जाएगा। ये सारी दुनिया में जो प्रेमी टूट जाते हैं, उसमें और क्या बात है? उसमें कुल इतनी बात है कि लेन-देन गड़बड़ हो जाता है। मतलब हमने जितना चाहा था मिले, उतना नहीं मिला; या जितना हमने सोचा था दिया, उसका ठीक प्रतिफल नहीं मिला। सब लेन-देन टूट जाते

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जिस बात का लेना-देना दूसरों से है, उसके बारे में मत सोचें


दूसरे की किसी बात को लेकर सोचें मत। "और तुम यही सोचते रहते हो। निन्यानबे प्रतिशत बातें जो तुम सोचते हो उनका लेना-देना दूसरों से रहता है। छोड़ दें, उन्हें इसी वक्त छोड़ दें! "तुम्हारा जीवन बहुत छोटा है, और जीवन हाथों से फिसला जा रहा है। हर घड़ी तुम कम हो रहे हो, हर दिन तुम कम हो रहे हो, और हर दिन तुम कम जीवित होते जाते हो! हर जन्म-दिन तुम्हारा मरण-दिन है; तुम्हारे हाथों से एक वर्ष और फिसल गया। कुछ और प्रज्ञावान बनो।

"जिस बात का लेना-देना दूसरों से है, उसके बारे में मत सोचें। पहले अपनी मुख्य दुर्बलता के विपरीत अभ्यास करें।

"गुरजिएफ अपने अनुयायियों से कहा करता था-- 'पहली बात, सबसे पहली बात, ढूंढें कि तुम्हारी मूल दुर्बलता क्या है

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